Saturday, August 30, 2008

महीला होना फक्र की बात है ?

महिलाओं से जब यह सबाल पूछा जाता है की अगले जन्म में "नारी होना" पसंद करेंगी या नही तो उनका जब्वाब होता है की "अगर हांथों में कलम हो तो नारी में hin जन्म लेना पसंद करुँगी" । मतलब साफ है जब महिला के साथ "पवार" शब्द जुर जाए तो "नारी सबला नही अबला की पुराणी कहाबत गौण हो जाती है । दरअसल में "पवार" शब्द की बुनियाद बुध्कलिन अम्बपाली, मध्यकालीन रजिया सुलतान यावं आधुनिक युग में रानी लक्ष्मी बाई ने राखी । इस करी को और भी age बढ़ते हुए महिलाओं ने घर के आंगन से मर्यादा का अंचल को संजोये हुए भारतीय सभ्यता यावं sanskriti का मिशल बनकर उभरीं जिनमें एनी बेसेंट, सरोजनी नायडू, इंदिरा गाँधी, मदर टेरेसा, महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम, नर्गिस, किरण बेदी, बचेंद्री पल, पी टी उषा , कल्पना चावला, सुनीता विलिउम्स यावं प्रथम महिला नागरिक प्रतिभा पाटिल शामिल हैं ।

आज जब हम महिला सशक्तिकरण और एकीस्विन्सदी क बात करे तो नारियों में आत्मबोध, आत्मबल और आत्मा विश्वास का sancharan भरपूर हुआ हैं । लेकिन अफसोस की बात हैं की नारिया अपनी गोरी बांहें , उभरी छातियाँ , नंगी जांघों , नंगी पेरू, अर्धनग्न नितंभ की मांसलता को खुलें आम सरको पर परोस रही हैं इसससे नारी सशक्तिकरण की बात कुछ अटपटा व बेसुरा होता जा रहा हैं भले हिन् आधी आबादी के प्रतिबिम्ब सरको से संसद तक नारी होने का dambh तो भारती हैं लेकिन महिला होना फक्र की बात अब भी बेमानी साबित हो रही हैं ।

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