Monday, August 23, 2010

दिल्ली की डी टी सी बस और सुबिधाये नदारत

जी हाँ ! आज मैं आर के पुरम से मयूर विहार के लिए डी टी सी के ६११ नंबर का बस जो लो फ्लोर की बस थी उसमे चढ़ा । गर्मी इतनी अत्यधिक थी की लोग गर्मी से परेशान थे। इनमे आधी सीट तो महिलाओं के लिए होती है तो आधी से कम सीट पुरूषों के लिए होती है। दो सीट बुजुर्गो के लिए होती है उस पर भी कोई-न-कोई महिलाएं ही नज़र आएँगी या फिर युवा वर्ग। भीड़ इतनी अत्यधिक थी की लोगों को सीट मिलना दुर्लभ ही था। मैं भी उसी क़तर में खड़ा था। हर पड़ाव पर भीड़ बढाती ही जा रही थी और बस के कनडक्टरसाहब टिकेट काटते जा रहे थे।
मैंने बस में चर्चा छोड़ दी - जिंदगी नरक है क्या यही जिंदगी है की लोग बस धक्का-मुक्की खाते चले फिरें ? क्या यह जनसँख्या का परिणाम है या फिर राजनेताओं की अनदेखी? इतन कहना ही मेरा था लोग आपस में बर्बराने लगे आप ठीक कहते है। इन नेताओं ने हमारी मजबूरी को समझ लिया है। फिर कुछ देर ख़ामोशी रही। मैंने फिर कहा हम जनता ही सुल्फेट हैं । फिर आवाज आई आप ठीक कहते है। ये नेता गण हमारी कमजोरी को समझ गए है। तो मैंने कहा क्या आपने इन नेताओं की कमजोरी अब तक नहीं समझा क्या? बस मेरा इतना कहना था की लोग चिल्लाने लगे गेट खोलो गेट बंद नहीं होगा हवा आने दो आदि - आदि बाते कहने लगे। नतीजे के तौड़ पर हमने देखा बस का गेट खुल गया और बंद नहीं हुआ ।
मैंने यह महसूस किया की अगर लोगो को नेतृत्वा मिले तो लोग पानी में आग लगा दे। जनता को नेतृत्वा चाहिए जो नेता गण ही इन्हें दे सकते। ये नेतृत्वा के बगैर लाचार है, अधर है, दिशा हिन् है, और कमजोड है। इन्हें नेतृत्वा मिले तो ये वो सब कर सकते जो आज के नेता नहीं कर सकते। जनता भी नेता की कजोरो को समझती, परखती है पर लाचार है चुकी इनके पास नेतृत्वा की कमी है।
डी टी सी की बस में कम से कम ५ रूपया फिर १० रूपया और अंतिम पड़ाव पर जाने के लिए यानि जिस रूट की बस है वंहा तक का किराया १५ रूपया है। और सुबिधा के नाम पर कुछ भी नहीं। क्या यही सरकार है? क्या यही आज़ादी है?

2 comments:

संगीता पुरी said...

क्या यही सरकार है? क्या यही आज़ादी है?
सोंचने को विवश करता आलेख .. रक्षाबंधन की बधाई और शुभकामनाएं !!

राज भाटिय़ा said...

नेताओ के संग संग हम भी तो बहुत गलत है... जरा सोचे....हमे आजादी का मतलब ही नही मालूम,
आप को राखी की बधाई और शुभ कामनाएं